264

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥

मूल

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड गया हो॥264॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥

मूल

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥

भावार्थ

नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं॥1॥

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥

मूल

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥

भावार्थ

देवताओं की स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अञ्जलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं॥2॥

महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥

मूल

महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥

भावार्थ

पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं॥3॥

सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥

मूल

सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥

भावार्थ

श्री सीता-रामजी की जोडी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुन्दरता और श्रृङ्गार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं॥4॥