263

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्ग सखीं सुन्दर चतुर गावहिं मङ्गलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार॥263॥

मूल

सङ्ग सखीं सुन्दर चतुर गावहिं मङ्गलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार॥263॥

भावार्थ

साथ में सुन्दर चतुर सखियाँ मङ्गलाचार के गीत गा रही हैं, सीताजी बालहंसिनी की चाल से चलीं। उनके अङ्गों में अपार शोभा है॥263॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥

मूल

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥

भावार्थ

सखियों के बीच में सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुन्दर जयमाला है, जिसमें विश्व विजय की शोभा छाई हुई है॥1॥

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥

मूल

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥

भावार्थ

सीताजी के शरीर में सङ्कोच है, पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड रहा है। समीप जाकर, श्री रामजी की शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी जैसे चित्र में लिखी सी रह गईं॥2॥

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥

मूल

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥

भावार्थ

चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती॥3॥

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥

मूल

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥

भावार्थ

(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डण्डियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी॥4॥