262

01 दोहा

बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥

मूल

बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥

भावार्थ

धीर बुद्धि वाले, भाट, मागध और सूत लोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब लोग घोडे, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥262॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए॥1॥

मूल

झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए॥1॥

भावार्थ

झाँझ, मृदङ्ग, शङ्ख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाडे आदि बहुत प्रकार के सुन्दर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मङ्गल गीत गा रही हैं॥1॥

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥

मूल

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥

भावार्थ

सखियों सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुईं, मानो सूखते हुए धान पर पानी पड गया हो। जनकजी ने सोच त्याग कर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष ने थाह पा ली हो॥2॥

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥

मूल

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥

भावार्थ

धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीताजी का सुख किस प्रकार वर्णन किया जाए, जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो॥3॥

रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥

मूल

रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी को लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा हो। तब शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी ने श्री रामजी के पास गमन किया॥4॥