259

01 दोहा

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु॥259॥

मूल

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु॥259॥

भावार्थ

इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित वचन बोले-॥259॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिसिकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥

मूल

दिसिकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥

भावार्थ

हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोडना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ॥1॥

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥

मूल

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया। सबका सन्देह और अज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान,॥2॥

भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥

मूल

भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥

भावार्थ

परशुरामजी के गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीताजी का सोच, जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल,॥3॥

सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई॥
राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कडहारू॥4॥

मूल

सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई॥
राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कडहारू॥4॥

भावार्थ

ये सब शिवजी के धनुष रूपी बडे जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढे।

ये श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है॥4॥