01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल॥258॥
मूल
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल॥258॥
भावार्थ
प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चञ्चल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही हों॥258॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥
मूल
गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥
भावार्थ
सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने (कोये) में ही रह जाता है। जैसे बडे भारी कञ्जूस का सोना कोने में ही गडा रह जाता है॥1॥
सकुची ब्याकुलता बडि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥
मूल
सकुची ब्याकुलता बडि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥
भावार्थ
अपनी बढी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरण कमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है,॥2॥
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू॥3॥
मूल
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू॥3॥
भावार्थ
तो सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥3॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥
मूल
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥
भावार्थ
प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं) कृपानिधान श्री रामजी सब जान गए। उन्होन्ने सीताजी को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे गरुडजी छोटे से साँप की ओर देखते हैं॥4॥