01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
मूल
रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥
मूल
सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥
भावार्थ
हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका, उसे तोडने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना और रामजी का उसे तोडने के लिए चल देना रानी को हठ जान पडा, इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीं॥2॥
मूल
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीं॥2॥
भावार्थ
रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमण्ड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी कहीं मन्दराचल पहाड उठा सकते हैं?॥2॥
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी॥3॥
मूल
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी॥3॥
भावार्थ
(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बडे समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, परन्तु मालूम होता है-) राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजी के महत्व को जानने वाली) सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिए॥3॥
कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥
मूल
कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥
भावार्थ
कहाँ घडे से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? किन्तु उन्होन्ने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमण्डल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अन्धकार भाग जाता है॥4॥