01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग।
बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग॥254॥
मूल
उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग।
बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग॥254॥
भावार्थ
मञ्च रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब सन्त रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥
मूल
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥
भावार्थ
राजाओं की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बन्द हो गया। (वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा रूपी कुमुद सङ्कुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू छिप गए॥1॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥
मूल
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥
भावार्थ
मुनि और देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम सहित गुरु के चरणों की वन्दना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी॥2॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
मूल
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
भावार्थ
समस्त जगत के स्वामी श्री रामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमाञ्च से भर गए॥3॥
बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥
मूल
बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥
भावार्थ
उन्होन्ने पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डण्डी की भाँति तोड डालें॥4॥