253

01 दोहा

तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥

मूल

तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥

भावार्थ

हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा॥253॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥

मूल

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥

भावार्थ

ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए॥1॥

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥

मूल

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥

भावार्थ

गुरु विश्वामित्रजी, श्री रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया॥2॥

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥

मूल

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥

भावार्थ

विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोडो और हे तात! जनक का सन्ताप मिटाओ॥3॥

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढे भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥

मूल

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढे भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥

भावार्थ

गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपनी ऐण्ड (खडे होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खडे हुए ॥4॥