251

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुअँरि मनोहर बिजय बडि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥

मूल

कुअँरि मनोहर बिजय बडि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥

भावार्थ

परन्तु धनुष को तोडकर मनोहर कन्या, बडी विजय और अत्यन्त सुन्दर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं॥251॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढावा॥
रहउ चढाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छडाई॥1॥

मूल

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढावा॥
रहउ चढाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छडाई॥1॥

भावार्थ

कहिए, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी शङ्करजी का धनुष नहीं चढाया। अरे भाई! चढाना और तोडना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुडा न सका॥1॥

अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥

मूल

अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥

भावार्थ

अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैन्ने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोडकर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥

मूल

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥

भावार्थ

यदि प्रण छोडता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता॥3॥जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥

माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥

मूल

माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥

भावार्थ

जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढी हो गईं, होठ फडकने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए॥4॥