01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥
मूल
तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥
भावार्थ
वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकडते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है॥250॥
02 चौपाई
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न सम्भु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥
मूल
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न सम्भु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥
भावार्थ
तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता॥1॥
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥
मूल
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥
भावार्थ
सब राजा उपहास के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना सन्न्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बडी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए॥2॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥
मूल
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥
भावार्थ
राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥3॥
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥
मूल
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥
भावार्थ
मैन्ने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए॥4॥