248

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरजन लाज समाजु बड देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥

मूल

गुरजन लाज समाजु बड देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥

भावार्थ

परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बडे समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं॥248॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥

मूल

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-॥1॥

हरु बिधि बेगि जनक जडताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥

मूल

हरु बिधि बेगि जनक जडताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥

भावार्थ

हे विधाता! जनक की मूढता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुन्दर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोडकर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें॥2॥

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अन्तहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥

मूल

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अन्तहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥

भावार्थ

संसार उन्हें भला कहेगा, क्योङ्कि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अन्त में भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है॥3॥तब बन्दीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥

कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥

मूल

कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥

भावार्थ

तब राजा जनक ने वन्दीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनन्द न था॥4॥