01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
मूल
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
भावार्थ
इस प्रकार (का संयोग होने से) जब सुन्दरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) सङ्कोच के साथ सीताजी के समान कहेङ्गे॥247॥
(जिस सुन्दरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुन्दरता भी प्राकृत, लौकिक सुन्दरता ही होगी, क्योङ्कि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुन्दरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिए बडे सङ्कोच की बात होगी। जिस सुन्दरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुन्दरता उपर्युक्त सुन्दरता से भिन्न अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालङ्कार के द्वारा बडी सुन्दरता से व्यक्त किया है।)
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलीं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥
मूल
चलीं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥
भावार्थ
सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साडी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है॥1॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए॥
रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥
मूल
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए॥
रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥
भावार्थ
सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अङ्ग-अङ्ग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है। जब सीताजी ने रङ्गभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए॥2॥
हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥
मूल
हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥
भावार्थ
देवताओं ने हर्षित होकर नगाडे बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे॥3॥
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥
मूल
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥
भावार्थ
सीताजी चकित चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीताजी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्री रामजी में) जा लगे (स्थिर हो गए)॥4॥