01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥
मूल
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥
भावार्थ
तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुन्दर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं॥246॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीं॥1॥
मूल
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीं॥1॥
भावार्थ
रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योङ्कि वे लौकिक स्त्रियों के अङ्गों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात् वे जगत की स्त्रियों के अङ्गों को दी जाती हैं)। (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अङ्गों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है)॥1॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥
मूल
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥
भावार्थ
सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा।) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुन्दर युवती है ही कहाँ (जिसकी उपमा उन्हें दी जाए)॥2॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥
मूल
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥
भावार्थ
(पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुन्दर हैं, तो उनमें) सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती अंर्द्धाङ्गिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अङ्ग स्त्री का है, शेष आधा अङ्ग पुरुष-शिवजी का है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनङ्ग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए॥3॥
जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू॥4॥
मूल
जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू॥4॥
भावार्थ
(जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मन्दराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुन्दरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुन्दर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं। हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृङ्गार (रस) पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे,॥4॥