01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
मूल
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
भावार्थ
(उन्होन्ने कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोडकर) श्री रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेङ्गे। (रही युद्ध की बात, सो) महाराज दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है॥245॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता॥1॥
मूल
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता॥1॥
भावार्थ
गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड दो),॥1॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बन्धु सम्भु उर बासी॥2॥
मूल
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बन्धु सम्भु उर बासी॥2॥
भावार्थ
और श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुन्दर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं)॥2॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥
मूल
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥
भावार्थ
समीप आए हुए (भगवत्दर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोडकर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौडकर क्यों मरते हो? फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे, वही जाकर करो। हमने तो (श्री रामचन्द्रजी के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर लिया)॥3॥
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढे बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥
मूल
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढे बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥
भावार्थ
ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे।
(मनुष्यों की तो बात ही क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढे हुए दर्शन कर रहे हैं और सुन्दर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥4॥