244

01 दोहा

सब मञ्चन्ह तें मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥

मूल

सब मञ्चन्ह तें मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥

भावार्थ

सब मञ्चों से एक मञ्च अधिक सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं) राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया॥244॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥

मूल

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥

भावार्थ

प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकर) सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोडेङ्गे, इसमें सन्देह नहीं॥1॥

बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥

मूल

बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥

भावार्थ

(इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिवजी के विशाल धनुष को (जो सम्भव है न टूट सके) बिना तोडे भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला डालेङ्गी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय रामचन्द्रजी के हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे कहने लगे) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥2॥

बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥

मूल

बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥

भावार्थ

दूसरे राजा, जो अविवेक से अन्धे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होन्ने कहा) धनुष तोडने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देङ्गे), फिर बिना तोडे तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है॥3॥

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥

मूल

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥

भावार्थ

काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेङ्गे। यह घमण्ड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुस्कुराए॥4॥