243

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥

मूल

कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥

भावार्थ

हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुन्दर कण्ठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कन्धे बैलों के कन्धे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐण्ड (खडे होने की शान) सिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भण्डार हैं॥243॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए॥1॥

मूल

कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए॥1॥

भावार्थ

कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुन्दर कन्धों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अङ्ग सुन्दर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है॥1॥

देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥

मूल

देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥

भावार्थ

उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होन्ने जाकर मुनि के चरण कमल पकड लिए॥2॥

करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥

मूल

करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥

भावार्थ

विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रङ्गभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। (मुनि के साथ) दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं॥3॥

निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥

मूल

निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥

भावार्थ

सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहा- रङ्गभूमि की रचना बडी सुन्दर है (विश्वामित्र- जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बडा सुख मिला॥4॥