237

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क।
सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क॥237॥

मूल

जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क।
सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क॥237॥

भावार्थ

खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलङ्की (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटइ बढइ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज सन्धिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही॥1॥

मूल

घटइ बढइ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज सन्धिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही॥1॥

भावार्थ

फिर यह घटता-बढता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी सन्धि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बडि जानी॥2॥

मूल

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बडि जानी॥2॥

भावार्थ

अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बडा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बडी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

मूल

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

भावार्थ

मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होन्ने विश्राम किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

मूल

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

भावार्थ

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोडकर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥