01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढइ प्रीति न थोरि॥234॥
मूल
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढइ प्रीति न थोरि॥234॥
भावार्थ
मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढता जाता है)॥234॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥
मूल
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥
भावार्थ
शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोडेङ्गे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाती हुई जाना,॥1॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी॥2॥
मूल
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी॥2॥
भावार्थ
तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुन्दर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मन्दिर में गईं और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर बोलीं-॥2॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥
मूल
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥
भावार्थ
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
मूल
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
भावार्थ
आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतन्त्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥