229

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥

मूल

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥

भावार्थ

नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं, मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो॥229॥

02 चौपाई

कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥

मूल

कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥

भावार्थ

कङ्कण (हाथों के कडे), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं- (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का सङ्कल्प करके डङ्के पर चोट मारी है॥1॥

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल॥2॥

मूल

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)। मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लडकी-दामाद के मिलन-प्रसङ्ग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड दीं, (पलकों में रहना छोड दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया)॥2॥

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥

मूल

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥

भावार्थ

सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बडा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो॥3॥

सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

मूल

सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

भावार्थ

वह (सीताजी की शोभा) सुन्दरता को भी सुन्दर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुन्दरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुन्दरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुन्दरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुन्दर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥