226

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

मूल

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

भावार्थ

रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए॥226॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥

मूल

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥

भावार्थ

सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (सन्ध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होन्ने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले॥1॥

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥

मूल

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने जाकर राजा का सुन्दर बाग देखा, जहाँ वसन्त ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रङ्ग-बिरङ्गी उत्तम लताओं के मण्डप छाए हुए हैं॥2॥

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥

मूल

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥

भावार्थ

नए, पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुन्दर नृत्य कर रहे हैं॥3॥

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा॥4॥

मूल

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा॥4॥

भावार्थ

बाग के बीचोम्बीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढियाँ विचित्र ढङ्ग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रङ्गों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं॥4॥