225

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

मूल

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

भावार्थ

फिर भय, प्रेम, विनय और बडे सङ्कोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥

मूल

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥

भावार्थ

रात्रि का प्रवेश होते ही (सन्ध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्यावन्दन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुन्दर रात्रि दो पहर बीत गई॥1॥

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥

मूल

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥

भावार्थ

तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान्‌ पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं॥2॥

तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥

मूल

तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥

भावार्थ

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया॥3॥

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढे धरि उर पद जलजाता॥4॥

मूल

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढे धरि उर पद जलजाता॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं।

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा- हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4॥