223

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द।
जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दोउ तहँ तहँ परमानन्द॥223॥

मूल

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द।
जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दोउ तहँ तहँ परमानन्द॥223॥

भावार्थ

सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनन्द छा जाता है॥223॥

02 चौपाई

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥

मूल

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥

भावार्थ

दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रङ्ग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लम्बा-चौडा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुन्दर और निर्मल वेदी सजाई गई थी॥1॥

चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा॥2॥

मूल

चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा॥2॥

भावार्थ

चारों ओर सोने के बडे-बडे मञ्च बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेङ्गे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मण्डलाकार घेरा सुशोभित था॥2॥

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥

मूल

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥

भावार्थ

वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुन्दर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेङ्गे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुन्दर सफेद मकान अनेक रङ्गों के बनाए गए हैं॥3॥

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥

मूल

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥

भावार्थ

जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेङ्गी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं॥4॥