01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
मूल
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
भावार्थ
नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों॥222॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥
मूल
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥
भावार्थ
दूसरी ने कहा- हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहा- शङ्करजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं॥1॥
सबु असमञ्जस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥
मूल
सबु असमञ्जस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥
भावार्थ
हे सयानी! सब असमञ्जस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी- हे सखी! इनके सम्बन्ध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बडा है॥2॥
परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥
मूल
परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥
भावार्थ
जिनके चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बडा भारी पाप किया था, वे क्या शिवजी का धनुष बिना तोडे रहेङ्गे। इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोडना चाहिए॥3॥
जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥
मूल
जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥
भावार्थ
जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर (बडी चतुराई से) रचा है, उसी ने विचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगीं- ऐसा ही हो॥4॥