221

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिप्रकाजु करि बन्धु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥

मूल

बिप्रकाजु करि बन्धु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥

भावार्थ

दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं॥221॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥

मूल

देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोडकर हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥1॥

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परन्तु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥

मूल

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परन्तु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥

भावार्थ

किसी ने कहा- राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है, परन्तु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोडता। वह होनहार के वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अडे रहने की मूर्खता नहीं छोडता)॥2॥

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू॥3॥

मूल

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू॥3॥

भावार्थ

कोई कहती है- यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजी को यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें सन्देह नहीं है॥3॥

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥

मूल

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥

भावार्थ

जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ। हे सखी! मेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेङ्गे॥4॥