219

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस।
नख सिख सुन्दर बन्धु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥

मूल

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस।
नख सिख सुन्दर बन्धु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥

भावार्थ

सिर पर सुन्दर चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एडी से चोटी तक) सुन्दर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है॥219॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रङ्क निधि लूटन लागी॥1॥

मूल

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रङ्क निधि लूटन लागी॥1॥

भावार्थ

जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोडकर ऐसे दौडे मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने दौडे हों॥1॥

निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥

मूल

निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥

भावार्थ

स्वभाव ही से सुन्दर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं॥2॥

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥

मूल

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥

भावार्थ

वे आपस में बडे प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होन्ने करोडों कामदेवों की छबि को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती॥3॥

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥

मूल

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥

भावार्थ

भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4॥