01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु लखनु दोउ बन्धुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम॥216॥
मूल
रामु लखनु दोउ बन्धुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम॥216॥
भावार्थ
ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होन्ने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है॥216॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुन्दर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
मूल
मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुन्दर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
भावार्थ
राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनन्द को भी आनन्द देने वाले हैं।
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
मूल
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
भावार्थ
इनकी आपस की प्रीति बडी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनन्दित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है॥2॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
मूल
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
भावार्थ
राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेम से) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बडा उत्साह है। (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले॥3॥
सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
मूल
सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
भावार्थ
एक सुन्दर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए॥4॥