212

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥

मूल

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥

भावार्थ

पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुन्दर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥

मूल

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥

भावार्थ

नगर की सुन्दरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुन्दर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥1॥

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई॥2॥

मूल

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई॥2॥

भावार्थ

कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं। सुन्दर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगन्ध से सिञ्ची रहती हैं॥2॥

मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता॥3॥

मूल

मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता॥3॥

भावार्थ

सबके घर मङ्गलमय हैं और उन पर चित्र कढे हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अङ्कित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥

मूल

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥

भावार्थ

जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम (सुन्दर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है॥4॥