211

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाडि कपट जञ्जाल॥211॥

मूल

अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाडि कपट जञ्जाल॥211॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जञ्जाल छोडकर उन्हीं का भजन कर॥211॥

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

मूल

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

02 चौपाई

चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गए जहाँ जग पावनि गङ्गा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥

मूल

चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गए जहाँ जग पावनि गङ्गा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गङ्गाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गङ्गाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥

मूल

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥

भावार्थ

तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गङ्गाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए। फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए॥2॥

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥

मूल

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥

गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥

मूल

गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥

भावार्थ

मकरन्द रस से मतवाले होकर भौंरे सुन्दर गुञ्जार कर रहे हैं। रङ्ग-बिरङ्गे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रङ्ग-रङ्ग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बह रहा है॥4॥