207

01 दोहा

देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

मूल

देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

भावार्थ

हे राजन्‌! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥207॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेम्पन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

मूल

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेम्पन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

भावार्थ

इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कान्ति फीकी पड गई। (उन्होन्ने कहा-) हे ब्राह्मण! मैन्ने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही॥1॥

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥

मूल

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥

भावार्थ

हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बडे हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा॥2॥

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा॥3॥

मूल

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा॥3॥

भावार्थ

सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुन्दर पुत्र! ॥3॥

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा॥4॥

मूल

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा॥4॥

भावार्थ

प्रेम रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बडा हर्ष माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का सन्देह नाश को प्राप्त हुआ॥4॥

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

मूल

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

भावार्थ

राजा ने बडे ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥5॥