203

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥

मूल

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥

भावार्थ

भोजन करते हैं, पर चित चञ्चल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले॥203॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता॥1॥

मूल

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुन्दर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वञ्चित कर दिया (नितान्त भाग्यहीन बनाया)॥1॥

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढन रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

मूल

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढन रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

भावार्थ

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढने गए और थोडे ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिङ्खेल सकल नृपलीला॥3॥

मूल

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिङ्खेल सकल नृपलीला॥3॥

भावार्थ

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढें, यह बडा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बडे) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3॥

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥

मूल

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥

भावार्थ

हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड-चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलते) हैं, उन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं॥4॥