01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
मूल
बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
भावार्थ
कौसल्याजी बार-बार हाथ जोडकर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥202॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बडे भए परिजन सुखदाई॥1॥
मूल
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बडे भए परिजन सुखदाई॥1॥
भावार्थ
भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बडे होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए॥1॥
चूडाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
मूल
चूडाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
भावार्थ
तब गुरुजी ने जाकर चूडाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई। चारों सुन्दर राजकुमार बडे ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं॥2॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
मूल
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
भावार्थ
जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोडकर नहीं आते॥3॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
मूल
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
भावार्थ
कौसल्या जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद ‘नेति’ (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकडने के लिए दौडती हैं॥4॥
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
मूल
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
भावार्थ
वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया॥5॥