01 दोहा
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखण्ड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड॥201॥
मूल
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखण्ड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड॥201॥
भावार्थ
फिर उन्होन्ने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोडों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥201॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥
मूल
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥
भावार्थ
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे॥1॥
देखी माया सब बिधि गाढी। अति सभीत जोरें कर ठाढी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥
मूल
देखी माया सब बिधि गाढी। अति सभीत जोरें कर ठाढी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥
भावार्थ
सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोडे खडी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुडा देती है॥2॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवन्त देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥
मूल
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवन्त देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥
भावार्थ
(माता का) शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए॥3॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥
मूल
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥
भावार्थ
(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैन्ने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥4॥