01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख सन्दोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
मूल
सुख सन्दोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
भावार्थ
जो सुख के पुञ्ज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
मूल
एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
भावार्थ
इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होन्ने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोडी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनन्द दे रहे हैं)॥1॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बन्धन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥
मूल
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बन्धन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोडों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बन्धन कौन छुडा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥2॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाडि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाडि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥
मूल
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाडि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाडि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥
भावार्थ
भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोडकर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोडकर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेङ्गे॥3॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥
मूल
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥
भावार्थ
इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीडा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं॥4॥