01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द।
हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द॥194॥
मूल
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द।
हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द॥194॥
भावार्थ
घर-घर मङ्गलमय बधावा बजने लगा, क्योङ्कि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुण्ड के झुण्ड जहाँ-तहाँ आनन्दमग्न हो रहे हैं॥194॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
मूल
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
भावार्थ
कैकेयी और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥1॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी॥2॥
मूल
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी॥2॥
भावार्थ
अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर भी मन में विचार कर वह मानो सन्ध्या बन (कर रह) गई हो॥2॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उडइ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा॥3॥
मूल
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उडइ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा॥3॥
भावार्थ
अगर की धूप का बहुत सा धुआँ मानो (सन्ध्या का) अन्धकार है और जो अबीर उड रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है॥3॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
मूल
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
भावार्थ
राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक महीना उन्होन्ने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)॥4॥