01 दोहा
बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
मूल
बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
भावार्थ
ब्राह्मण, गो, देवता और सन्तों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बन्धन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥
मूल
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥
भावार्थ
बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौडी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौडीं। सारे पुरवासी आनन्द में मग्न हो गए॥1॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानन्द समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
मूल
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानन्द समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
भावार्थ
राजा दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानन्द में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनन्द में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को सम्भालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
मूल
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
भावार्थ
जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का मन परम आनन्द से पूर्ण हो गया। उन्होन्ने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ॥3॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥
मूल
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥
भावार्थ
गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होन्ने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते॥4॥