181

01 दोहा

छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाडिहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

मूल

छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाडिहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

भावार्थ

भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेङ्गे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भलीभाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करके) छोड दूँगा॥181॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥

मूल

मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥

भावार्थ

फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत्र ! जो देवता रण में धीर और बलवान्‌ हैं और जिन्हें लडने का अभिमान है॥1॥

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥

मूल

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥

भावार्थ

उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया॥2॥

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥

मूल

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥

भावार्थ

रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)॥3॥

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥

मूल

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥

भावार्थ

दिक्पालों के सारे सुन्दर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था॥4॥

रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥

मूल

रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥

भावार्थ

रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोडी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौडता फिरा, परन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी,॥5॥

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥

मूल

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥

भावार्थ

किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग- सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड गया (किसी को भी उसने शान्तिपूर्वक नहीं बैठने दिया)। ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गए॥6॥

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥

मूल

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥

भावार्थ

डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे॥7॥