01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥
मूल
उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥
भावार्थ
यद्यपि वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥176॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥
मूल
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥
भावार्थ
तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बडी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्माजी उनके पास गए और बोले- हे तात! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो॥1॥
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2॥
मूल
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2॥
भावार्थ
रावण ने विनय करके और चरण पकडकर कहा- हे जगदीश्वर! सुनिए, वानर और मनुष्य- इन दो जातियों को छोडकर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)॥2॥
एवमस्तु तुम्ह बड तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3॥
मूल
एवमस्तु तुम्ह बड तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं कि-) मैन्ने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बडा तप किया है। फिर ब्रह्माजी कुम्भकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके मन में बडा आश्चर्य हुआ॥3॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4॥
मूल
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4॥
भावार्थ
जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्माजी ने सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससे) उसने छह महीने की नीन्द माँगी॥4॥