169

01 दोहा

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

मूल

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

भावार्थ

मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकान्त में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥169॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥

मूल

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥

भावार्थ

राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नीन्द आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो रही थी॥1॥

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥

मूल

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥

भावार्थ

(उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बडा मित्र था और खूब छल-प्रपञ्च जानता था॥2॥

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे॥3॥

मूल

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे॥3॥

भावार्थ

उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बडे ही दुष्ट, किसी से न जीते जाने वाले और देवताओं को दुःख देने वाले थे। ब्राह्मणों, सन्तों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था॥3॥

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥

मूल

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥

भावार्थ

उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी (षड्यन्त्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका॥4॥