168

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥

मूल

नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥

भावार्थ

नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमन्त्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥168॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा॥1॥

मूल

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा॥1॥

भावार्थ

हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोडे परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेङ्गे, तो उस प्रसङ्ग (सम्बन्ध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे॥1॥

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥

मूल

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥

भावार्थ

मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन्‌! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा॥2॥\

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥

मूल

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥

भावार्थ

तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन्‌! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा॥3॥

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥

मूल

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥

भावार्थ

हे राजन्‌! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेण्ट होगी। तप के बल से मैं घोडे सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा॥4॥