01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
मूल
जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
भावार्थ
वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥155॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥
मूल
हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥
भावार्थ
(राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बडा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था॥1॥
चढि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिन्ध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥
मूल
चढि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिन्ध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥
भावार्थ
एक बार वह राजा एक अच्छे घोडे पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विन्ध्याचल के घने जङ्गल में गया और वहाँ उसने बहुत से उत्तम-उत्तम हिरन मारे॥2॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥
मूल
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥
भावार्थ
राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पडता था) मानो चन्द्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकडकर) राहु वन में आ छिपा हो। चन्द्रमा बडा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है॥3॥
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥
मूल
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥
भावार्थ
यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोडे की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था॥4॥