01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
मूल
एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
भावार्थ
इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥144॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढे रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥
मूल
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढे रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥
भावार्थ
दस हजार वर्ष तक उन्होन्ने वायु का आधार भी छोड दिया। दोनों एक पैर से खडे रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनुजी के पास आए॥1॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥
मूल
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीडा नहीं थी॥2॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥
मूल
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥
भावार्थ
सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानी को ‘निज दास’ जाना। तब परम गम्भीर और कृपा रूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि ‘वर माँगो’॥3॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रन्ध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥
मूल
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रन्ध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥
भावार्थ
मुर्दे को भी जिला देने वाली यह सुन्दर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं॥4॥