01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग॥143॥
मूल
द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग॥143॥
भावार्थ
और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥143॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥
मूल
करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥
भावार्थ
वे साग, फल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानन्द ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे॥1॥
उर अभिलाष निरन्तर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी॥2॥
मूल
उर अभिलाष निरन्तर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी॥2॥
भावार्थ
हृदय में निरन्तर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं॥2॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा॥
सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥
मूल
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा॥
सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥
भावार्थ
जिन्हें वेद ‘नेति-नेति’ (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनन्दस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं॥3॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥
मूल
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥
भावार्थ
ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥4॥