01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
मूल
श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
भावार्थ
शाप को सिर पर चढाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खीञ्च ली॥137॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥
मूल
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥
भावार्थ
जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्री हरि के चरण पकड लिए और कहा- हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥2॥
मूल
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥2॥
भावार्थ
हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए। तब दीनों पर दया करने वाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है। मुनि ने कहा- मैन्ने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेङ्गे?॥2॥
जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥
मूल
जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥
भावार्थ
(भगवान ने कहा-) जाकर शङ्करजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरन्त शान्ति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोडना॥3॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥4॥
मूल
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥4॥
भावार्थ
हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी॥4॥