135

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

मूल

होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

भावार्थ

तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना॥135॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥

मूल

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥

भावार्थ

मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उनके होठ फडक रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरन्त ही वे भगवान कमलापति के पास चले॥1॥

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥

मूल

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥

भावार्थ

(मन में सोचते जाते थे-) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होन्ने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थीं॥2॥

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥3॥

मूल

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥3॥

भावार्थ

देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा- हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बडा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा॥3॥

पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥

मूल

पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥

भावार्थ

(मुनि ने कहा-) तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया॥4॥