01 दोहा
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
मूल
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
भावार्थ
वहाँ शिवजी के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बडे मौजी थे॥133॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥
मूल
जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥
भावार्थ
नारदजी अपने हृदय में रूप का बडा अभिमान लेकर जिस समाज (पङ्क्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका॥1॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥2॥
मूल
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥2॥
भावार्थ
वे नारदजी को सुना-सुनाकर, व्यङ्ग्य वचन कहते थे- भगवान ने इनको अच्छी ‘सुन्दरता’ दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी॥2॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥3॥
मूल
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥3॥
भावार्थ
नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योङ्कि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिवजी के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)॥3॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥4॥
मूल
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥4॥
भावार्थ
इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारदजी का) वह रूप देखा। उनका बन्दर का सा मुँह और भयङ्कर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया॥4॥