132

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

मूल

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

भावार्थ

हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेङ्गे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥132॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयऊ॥1॥

मूल

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयऊ॥1॥

भावार्थ

हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैन्ने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1॥

माया बिबस भए मुनि मूढा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई॥2॥

मूल

माया बिबस भए मुनि मूढा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई॥2॥

भावार्थ

(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ हो गए कि वे भगवान की अगूढ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरन्त वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी॥2॥

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥3॥

मूल

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥3॥

भावार्थ

राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बडा सुन्दर है, मुझे छोड कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी॥3॥

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥4॥

मूल

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥4॥

भावार्थ

कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया॥4॥