127

01 दोहा

सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

मूल

सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

भावार्थ

यद्यपि शिवजी ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारदजी को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरि की इच्छा बडी बलवान है॥127॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए॥1॥

मूल

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए॥1॥

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2॥

मूल

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2॥

भावार्थ

एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथ में सुन्दर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदान्तत्व) लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं॥2॥

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3॥

मूल

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3॥

भावार्थ

रमानिवास भगवान उठकर बडे आनन्द से उनसे मिले और ऋषि (नारदजी) के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले- हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की॥3॥

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4॥

मूल

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4॥

भावार्थ

यद्यपि श्री शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बडी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें॥4॥