125

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख हाड लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

मूल

सूख हाड लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

भावार्थ

जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को (नारदजी मेरा राज्य छीन लेङ्गे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥125॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसन्त निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहिं भृङ्गा॥1॥

मूल

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसन्त निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहिं भृङ्गा॥1॥

भावार्थ

जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रङ्ग-बिरङ्गे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुञ्जार करने लगे॥1॥

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढावनिहारी॥
रम्भादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥2॥

भावार्थ

कामाग्नि को भडकाने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मन्द और सुगन्ध) सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवाङ्गनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,॥2॥

करहिं गान बहु तान तरङ्गा। बहुबिधि क्रीडहिं पानि पतङ्गा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपञ्च बिधि नाना॥3॥

भावार्थ

वे बहुत प्रकार की तानों की तरङ्ग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेन्द लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए॥3॥

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड रखवार रमापति जासू॥4॥

भावार्थ

परन्तु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बडे रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है? ॥4॥