119

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

मूल

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

भावार्थ

बार- बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलों को पकडकर और अपने कमल के समान हाथों को जोडकर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुन्दर वचन बोलीं॥119॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥

मूल

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥

भावार्थ

आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब सन्देह हर लिया, अब श्री रामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया॥1॥

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥2॥

मूल

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर-॥2॥

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैन्ने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं॥3॥

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥4॥

भावार्थ

फिर हे नाथ! उन्होन्ने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर-॥4॥