114

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

मूल

कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

भावार्थ

जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥114॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी॥1॥

मूल

अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी॥1॥

भावार्थ

जो अज्ञानी, मूर्ख, अन्धे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बडे कुटिल हैं और जिन्होन्ने कभी स्वप्न में भी सन्त समाज के दर्शन नहीं किए॥1॥

कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

मूल

कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

भावार्थ

और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे श्री रामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें!॥2॥

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

भावार्थ

जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढन्त बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असम्भव नहीं है॥3॥

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥4॥

भावार्थ

जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होन्ने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए॥4॥